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शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन 1857 से 1947

 भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन 1857 से 1947


परिचय


भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (1857 - 1947) भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र कराने का एक ऐतिहासिक संघर्ष था, जिसकी शुरुआत 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से हुई। इस आंदोलन में मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई, और बहादुर शाह जफर जैसे वीरों ने ब्रिटिशों के खिलाफ खड़ा होकर क्रांति की चिंगारी जलाई। इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ,जिसमें दादा भाई नौरोजी, और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेताओं ने शांतिपूर्ण सुधारो की मांग की। समय के साथ, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और विपिन चंद्रपाल जैसे उग्र नेता ने अधिक तीव्र आंदोलन की शुरुआत की। महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन ने ब्रिटिश शासन को कमजोर किया। अंत में 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी प्राप्त हुई।


स्वतंत्रता की पहली चिंगारी - 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

1857 में भारतीय इतिहास में पहली बार पूरे देश ने अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ाई लड़ी थी। इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है, हालांकि ब्रिटिश इसे सिपाही विद्रोह कहते हैं।इस विद्रोह ने भारतीयों को यह एहसास दिलाया कि वे अपने अधिकारों के लिए खड़े हो सकते हैं।

विद्रोह के कारण

राजनीतिक कारण:-

1. अंग्रेजों का ज्यादा नियंत्रण


अंग्रेजों ने भारतीय शासको से उनकी सत्ता छीन ली थी और खुद ही भारत में शासन करने लगे थे। अब भारतीयों के पास खुद का कोई शासन नहीं था। 

2. लॉर्ड डलहौजी की लैप्स नीति 

बहुत समय पहले भारत में छोटे-छोटे राज्य थे, जिनके खुद के राजा होते थे। इन राजाओं के पास अपनी पूरी ताकत थी और वे अपने राज्यों को अच्छे से चलाते थे। लेकिन अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा करना शुरू किया और इन राज्यों को अपनी पकड़ में लाने लगे।
ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने एक नीति बनाई जिसे लैप्स की नीति कहा गया।इस नीति के अनुसार अगर किसी राजा का कोई बेटा नहीं था तो उसका राजा अंग्रेजों के पास चला जाता था।


 



सामाजिक कारण: -

अंग्रेजों को लगता था कि भारतीय समाज में सुधार लाना जरूरी है। अतः उन्होंने सती प्रथा को रोकने, और विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए कानून बनाएं। कई भारतीयों को भारतीय समाज में यह हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा।

1. सती प्रथा पर रोक

अंग्रेजों ने सती प्रथा को समाप्त करने के लिए एक कानून बनाया। सती प्रथा में, विधवाओं को अपने मृत पति के साथ अग्नि में कूदने पर मजबूर किया जाता था। हालांकि यह प्रथा अमानवीय थी, लेकिन इसे भारतीयों ने अपनी धार्मिक परंपरा का हिस्सा माना।



2. बाल विवाह पर रोक

अंग्रेजों ने बाल विवाह को रोकने के लिए कानून बनाए। यह बदलाव भारतीय परंपरा और रीति-रिवाजों के खिलाफ था क्योंकि भारत में बाल विवाह को एक सामान्य प्रथम माना जाता था 

3. विधवा पुनर्विवाह 

अंग्रेजों ने विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए कानून बनाएं, ताकि विधवाएं दोबारा शादी कर सके। भारतीय समाज में यह परंपरा नहीं थी, और इसे बहुत से लोग अपनी संस्कृति और धर्म के खिलाफ मानते थे।

 

धार्मिक कारण:-

1. ईसाई धर्म का प्रचार

अंग्रेजों ने भारत में ईसाई धर्म को फैलाने की कोशिश की जिससे भारतीयों को यह लगा कि उनके धर्म को कमजोर किया जा रहा है कहीं भारतीयों ने इसका विरोध किया क्योंकि उन्हें डरता कि अंग्रेज उनके धर्म को पूरी तरह से नष्ट कर देंगे।


2 मिशनरी गतिविधियां

अंग्रेजों ने भारत में ईसाई धर्म को फैलाने के लिए मिशनरी स्कूल और चर्चाओं की स्थापना की। उन्होंने भारतीयों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे भारतीयों को यह महसूस हुआ कि अंग्रेज उनका धर्म और संस्कृति खत्म करना चाहते हैं।

3. ईसाई धर्म को सरकारी सहायता देना

अंग्रेजों ने ईसाई धर्म को बढ़ावा देने के लिए सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल किया, जिससे भारतीयों को यह लगता था कि अंग्रेज उनके धर्म को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं।

4. भारतीय संस्कृति और परंपराओं का अपमान

अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति और परंपराओं का अपमान किया। उन्होंने भारतीयों के धार्मिक अधिकारों को दबाया और अपनी यूरोपीय संस्कृति को फैलाने की कोशिश की।


आर्थिक कारण:-

1757 ई से 1857 ई तक के 100 वर्षों में अंग्रेजों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। किसानों की बुरी हालत हो गई किसानों पर भारी कर लगाया गया जिससे वे आर्थिक रूप से कमजोर हो गए। जमीदारी प्रणाली ने किसानों का शोषण किया और उनके जीवन को कठिन बना दिया।जमींदारों की जमीनें जब्त कर ली गई। भारतीय उद्योग तबाह हो गए। इंग्लैंड में बना माल भारत में बिकने लगा। कुशल कारीगर अंग्रेजों के कारखाने में नौकरी करने लगे। भारतीयों को ब्रिटिश प्रशासन में उच्च पदों पर काम करने के अवसर नहीं मिले, जिससे बेरोजगारी बढ़ी। ये सब आर्थिक कारण थे जिनकी वजह से भारतीय अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए

1. नए क्यों का बोझ


अंग्रेजों ने भारतीयों पर विभिन्न प्रकार के करों का बोझ डाला। जैसे जमींदारी कर, कृषि कर, व्यापार कर, और अन्य करो को बढ़ावा दिया गया। इस बढ़ हुए करों ने किसानों और व्यापारियों को बहुत परेशान किया। इन्हें अपनी जीविका चलाने में मुश्किलें आने लगी, और इससे उनके मन में गहरी नाराजगी पैदा हुई।

2. जमींदरी व्यवस्था

अंग्रेजों ने जमींदरी व्यवस्था को लागू किया, जिसमें जमींदारों को कृषि भूमि का मालिक बना दिया गया। लेकिन वे किसानों उसका हक नहीं देते थे और किसानों से अत्यधिक कर वसूल करते थे। इससे किसानों का शोषण बढ़ा, और उन्हें गरीबी का सामना करना पड़ा।


सैनिक कारण:-


1. सैनिकों की खराब स्थिति

अंग्रेज़ी सेना में भारतीय सैनिकों की जीवन स्थितियों बहुत खराब थी। उन्हें अपमानजनक हालत में रखा जाता था। उनके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था सही नहीं थी। इससे वे बहुत परेशान थे। 

2. सम्मान अधिकारों की कमी

अंग्रेजी सेना में भारतीय सैनिकों को अंग्रेज सैनिकों की तुलना में बहुत कम अधिकार मिलते थे। भारतीय सैनिकों को हमेशा नीचे समझा जाता था और उन्हें कम वेतन दिया जाता था। यह भेदभाव उनके गुस्से का कारण बना।


3 सैनिकों की भर्ती में भेदभाव

अंग्रेजी सेना में भारतीय सैनिकों को उच्च पद पर नहीं रखा जाता था, जबकि अंग्रेज सैनिकों को सबसे अच्छे पद मिलते थे। यह भेदभाव भारतीय सैनिकों को गुस्से में डालता था।

4. कठोर सजा और अनुशासन

अंग्रेज अफसर भारतीय सैनिकों को किसी भी छोटी गलती पर कठोर सजा देते थे। यह सैनिकों को बहुत अपमानजनक और तनावपूर्ण लगता था, जिससे उनका गुस्सा और बढ़ा।

5. समुद्र पर भेजना

1856 ईस्वी में एक ऐसा सैनिक कानून पास किया गया जिसके अनुसार सैनिकों को लड़ने के लिए समुद्र पर भेजा जाता था, परंतु हिंदू सैनिक समुद्र पार जाना अपने धर्म के विरुद्ध समझते थे।

6. गालियां देना
परेड के समय भारतीय सैनिकों के साथ अभद्र व्यवहार किया जाता था, उन्हें गालियां दी जाती थी।भारतीय सैनिक इस अपमान को अधिक देर तक सहन नहीं कर सकते थे।



7. सभ्यता और संस्कृति का मजाक उड़ाना

अंग्रेज अधिकारी भारतीय सैनिकों के सामने ही उनकी सभ्यता तथा संस्कृति का मजाक उड़ाया करते थे। भारतीय सैनिक अंग्रेजों से इस अपमान का बदला लेना चाहते थे।

तात्कालिक कारण:-

सैनिकों को नए कारतूस प्रयोग करने के लिए दिए गये। इन कारतूसों पर सूअर तथा गाय की चर्बी लगी हुई थी। अतः बैरकपुर छावनी के सैनिक मंगल पांडे ने इनका प्रयोग करने से इनकार कर दिया। मंगल पांडेय ने क्रोध में आकर एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी। इस आरोप में मंगल पांडे को फांसी दे दी गई। इसके बाद मेरठ के अन्य सैनिकों ने भी इन कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया तथा 1857 का विद्रोह शुरू हो गया।


1857 ई के विद्रोह की मुख्य घटनाएं

मेरठ

विद्रोह की शुरुआत 10 मई 1857 ई को मेरठ से हुई। जब मंगल पांडे ने चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग करने से मना किया। क्रोध में आकर मंगल पांडे ने एक अंग्रेज अधिकारी मेजर हसन को गोली मार दी फिर मंगल पांडे को फांसी का दंड दिया गया। मेरठ की जनता तथा सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध खुला विद्रोह कर दिया। सारा नगर मारो फिरंगी को के नारों से गूंज उठा। सैनिकों ने जेल के दरवाजे तोड़ दिए और अपने बंदी सैनिकों को मुक्त करवाया और यहां से वे दिल्ली की ओर चल पड़े

दिल्ली

10 मई की रात को ही मेरठ के कुछ सिपाही घोड़े पर सवार होकर दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली पहुंचकर उन्होंने बहादुर शाह जफर को सम्राट घोषित किया और 11 मई 1857 को बहादुर शाह जफर का समर्थन प्राप्त हुआ जिससे यह विद्रोह एक राष्ट्रीय आंदोलन बन गया बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों के खिलाफ नेतृत्व किया और इसे एक राजनीतिक स्वरूप दिया।

कानपुर 

नाना साहेब और तात्या टोपे के नेतृत्व में कानपुर में अंग्रेजों के खिलाफ भयंकर लड़ाई लड़ी गई। परन्तु 17 जुलाई 1857 को कर्नल हैवलॉक ने नाना साहब को पराजित करके कानपुर पर फिर से अधिकार कर लिया। तांत्या टोपे ने वहां पुनः अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयत्न किया। परंतु वह सफल न हो सका। इसी बीच नानासाहेब ने भाग कर नेपाल में शरण ली। तांत्या टोपे भाग कर झांसी की रानी के पास चला गया।

लखनऊ

लखनऊ अवध की राजधानी थी अंग्रेज सेनापति हैवलॉक ने एक विशाल सेना की सहायता से लखनऊ पर आक्रमण किया 31 मार्च 1858 ई को यहां पर उनका अधिकार हो गया कुछ समय पश्चात अवध के ताल्लुकेदारों ने शस्त्र डाल दिए इस प्रकार अवध में भी क्रांति के ज्वाला बुझ गई।

झांसी

झांसी में रानी लक्ष्मीबाई ने क्रांति का नेतृत्व किया। उसके आगे अंग्रेजों की एक न चली। जनवरी 1858 ईस्वी में सर हयूरोज ने झांसी को जितना चाहा, परंतु वह पराजित हुआ। अप्रैल 1858 ईस्वी में झांसी पर फिर आक्रमण किया गया। इस बार रानी के कुछ साथी अंग्रेजों से जा मिले, परंतु रानी ने अंतिम सांस तक अंग्रेजों की सेना का सामना किया। अंत में वह वीरगति को प्राप्त हुई, और झांसी के किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। कुछ समय पश्चात तांत्या टोपे पकड़ा गया ‌
 1859 ईस्वी में तांत्या टोपे को फांसी दे दी गई।

पंजाब

भले ही पंजाब की रियासत के कुछ शासको ने विद्रोह में अंग्रेजों का साथ दिया था, फिर भी कई स्थान पर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भी हुए। फिरोजपुर, पेशावर, जालंधर आदि स्थानों पर भारतीय सैनिकों ने विद्रोह किए। अंग्रेजो ने इन विद्रोह को दबा दिया और बहुत से सैनिकों को मार डाला।

आधुनिक हरियाणा राज्य में रेवाड़ी, भिवानी, बल्लभगढ़, हांसी,
आदि स्थानों के नेताओं ने भी 1857 ई की क्रांति में अंग्रेजों से टक्कर ली। परंतु अंग्रेजों ने उनका दमन कर दिया।

1857 की क्रांति के परिणाम

राजनीतिक परिणाम

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया, अब भारत का शासन सीधे इंग्लैंड की सरकार के अधीन आ गया।

भारत के गवर्नर जनरल को वायसराय की नई उपाधि दी गई।

भारत में मुगल सत्ता का अंत हो गया।

भारतीय राज्यों को पुत्र गोद लेने की अनुमति दे दी गई।
अंग्रेजों ने भारत के देसी राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलने की नीति का त्याग कर दिया।
1857 की क्रांति ने भारतीयों में राष्ट्रीय जागरूकता पैदा की और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की भावना को जागृत किया।

सामाजिक परिणाम

1 नवंबर 1858 ई को इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया ने घोषणा की कि भारत में धार्मिक सहनशीलता की नीति अपनाई जाएगी भारतीयों को सरकारी नौकरियां योग्यता के आधार पर दी जाएगी तथा उन्हें उच्च पद भी दिए जाएंगे।

अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति अपना ली। इस नीति के अनुसार अंग्रेजों ने हिंदुओं तथा मुसलमान को आपस में लड़ना आरंभ कर दिया, ताकि भारत में अंग्रेजी राज्य को कोई भी आंच न पहुंचे।

आर्थिक परिणाम

1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने भारत के आर्थिक शोषण को और बढ़ा दिया।

अंग्रेजों ने भारतीय उद्योगों को कमजोर किया और भारत को कच्चे माल का स्रोत बना दिया।

इंग्लैंड की सरकार ने भारतीयों पर कई प्रकार के व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए, परिणामस्वरुप भारतीय व्यापार को बहुत अधिक क्षति पहुंची।

सैनिक परिणाम

विद्रोह के पश्चात भारतीय सैनिकों की संख्या कम करके यूरोपीय सैनिकों की संख्या बढ़ा दी गई ताकि क्रांति के खतरे को डाला जा सके।
तोपखाने में केवल यूरोपीय सैनिकों को ही नियुक्त किया जाने लगा।

जाति तथा धर्म के आधार पर सैनिकों की अलग-अलग टुकड़िया बनाई गई, ताकि वे एक होकर अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध विद्रोह ना कर सके।
ऊंचे पदों तथा महत्वपूर्ण स्थानों पर यूरोपीय सैनिकों को नियुक्त किया गया। भारतीय सैनिकों को कम महत्वपूर्ण कार्य सौंपें गए।

यूरोपीय सेना का खर्च भारतीय जनता पर डाल दिया गया।


भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (1885-1915)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था भारतीय लोग अंग्रेजों के अत्याचारों से परेशान थे शासन की नीतियां भारतीयों के लिए अन्यायपूर्ण थी और हर जगह असंतोष फैला हुआ था इस बीच कुछ दूरदर्शी लोग सोचने लगे कि अगर एकजुट होकर आवाज उठाई जाए तो कुछ बदला जा सकता है।
ब्रिटिश अधिकारी एलन ऑक्टेवियन ने देखा कि भारत में जनता में जागरूकता बढ़ रही है उन्होंने सोचा कि भारतीयों को एक मंच दिया जाए जहान वे अपनी समस्याओं को सांचा कर सके और सरकार से सुधार की मांग कर सके इसी विचार से उन्होंने एक संगठन बनाने का निर्णय लिया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश राज में 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति के साथ 28 दिसंबर 1885 को दोपहर 12:00 बजे मुंबई में गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज के भवन में एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश सिविल सेवक ए ओ ह्यूम द्वारा भारतीय नेताओं की सहयोग से हुई जिन्होंने कोलकाता के व्योमेश चंद्र बनर्जी को अध्यक्ष नियुक्त किया था। 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को बढ़ावा देने की दिशा में एक प्रयास था।
अधिवेशन का अध्यक्ष उस क्षेत्र से चुना जाता था जहां कि कांग्रेस के अधिवेशन का आयोजन किया जा रहा हो।
अपने शुरुआती दिनों में कांग्रेस का दृष्टिकोण एक कुलीन वर्ग की संस्था का था। इसके शुरुआती सदस्य मुख्य रूप से मुंबई और मद्रास  प्रेसिडेंसी से लिए गए थे।


अंग्रेज जो कि पहले नरमपंथीयो की मदद करते थे ।शीघ्र ही यह अनुभव करने लगे कि यह आंदोलन एक राष्ट्रीय शक्ति के रूप में बदल सकता है जो उन्हें देश से बाहर कर देगी। इससे उनकी मानसिकता पूरी तरह बदल गई। उन्होंने शिक्षा को नियंत्रित करने और प्रेस को कुचलने के लिए कड़े नियम पारित किए। कांग्रेसी नेताओं को शांत रखने के लिए कुछ छूट दी गई।


 उदारवादियों के उद्देश्य और योगदान 

19वीं शताब्दी के अंत में कुछ भारतीय नेताओं ने आजादी की लड़ाई शुरू की। वे शांति से आंदोलन करते थे, और कानून के दायरे में रहकर विरोध करते थे। उनका मकसद लोगों को राजनीति की समझ देना और भारत के लिए समर्थन जुटाना था। उस समय वे अंग्रेजों से सीधा झगड़ा नहीं चाहते थे। इन नेताओं ने अंग्रेजों की लूट का विरोध किया और बताया कि कैसे भारत का पैसा विदेश जा रहा है। इसलिए इसे आर्थिक राष्ट्रवाद कहा गया। उनके दबाव में आकर अंग्रेजों ने कुछ सुधार किए जैसे 1892 का भारत परिषद अधिनियम और 1896 का व्यय सुधार आयोग (वेल्बी आयोग)। उन्होंने प्रशासन में सुधार की मांग की। भारतीयों के अधिकारों की रक्षा की और आंदोलन को सभी धर्मों के लिए सम्मान बनाया, जिससे आजादी की लड़ाई और मजबूत हुई।



बंगाल विभाजन और स्वदेशी आंदोलन 


1905 में ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड कर्जन के नेतृत्व में प्रशासनिक सुविधा का बहाना बनाकर बंगाल का विभाजन किया, जिसमें तत्कालिक बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, और बंगलादेश शामिल थे। यह विभाजन 16 अक्टूबर 1905 को लागू हुआ, जिसे भारतीय राष्ट्रवाद पर आघात के रूप में देखा गया। राष्ट्रीय नेताओं और जनता ने इसे हिंदू मुसलमानों को अलग करने की साजिश माना और 16 अक्टूबर को शोक दिवस के रूप में मनाया। 7 अगस्त 1905 से तीव्र आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन का जन्म हुआ। लोगों ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर और विदेशी सम्मान का बहिष्कार कर विरोध जिताया। इस आंदोलन ने पूरे देश में राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया और स्वदेशी आंदोलन को एक राष्ट्रीय रूप दिया, जिसने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम की नींव को और अधिक मजबूत किया।

उग्र और क्रांतिकारी आंदोलन 1905 ई से 1914 ई

1905 के बाद जब बंगाल विभाजन के विरोध में आंदोलन चला, तो तिलक, विपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष जैसे नेता आगे आए। लेकिन जब सरकार ने सख्ती दिखाई और आंदोलन कमजोर हुआ, तो कुछ युवाओं ने गुप्त संगठनों जैसे अनुशीलन समिति, अभिनव भारत, और मित्र मेला के जरिए क्रांतिकारी रास्ता अपनाया। यह आंदोलन सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, और सिंगापुर तक फैल गया। 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरमपंथी और गरमपंथी नेताओं में मतभेद हो गया और कांग्रेस दो भागों में बट गई।

 1906 में आगा खान तृतीय और मोहसिन मुल्क ने मुस्लिम लीग बनाई। 1909 में ब्रिटिश सरकार ने मार्ले  मिंटो सुधार लागू किए, जिससे मुसलमानो को अलग निर्वाचन मंडल दिया गया।

 1913 में लाला हरदयाल ने गदर आंदोलन शुरू किया और अमेरिका में गदर पार्टी बनाई, जिसने गदर पत्रिका छापी। 1914 में कामा गाटामारू घटना हुई, जिसमें भारतीय यात्रियों को कनाडा में घुसने नहीं दिया गया, जिसके खिलाफ शोर कमेटी ने कानूनी लड़ाई लड़ी। इन क्रांतिकारी आंदोलनों ने आजादी की लड़ाई को और तेज कर दिया।

कामागाटा मारू घटना


वर्ष 1914 में कामा गाटा मारू नामक जहाज 376 भारतीयों को लेकर समुद्री रास्ते से कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया तट पर पहुंचा। इन में 340 सिख, 24 मुसलमान, 12 हिंदू और बाकी ब्रिटिश थे। इस जहाज को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल गदर पार्टी के नेता गुरदीप सिंह ने किराए पर लिया था। 23 मई 1914 को वैंकुवर के तट पर जहाज पहुंचा तो उसे 2 महीने तक वहीं खड़ा रहना पड़ा। क्योंकि कनाडा की सरकार ने अलग-अलग कानूनों का हवाला देकर भारतीयों को वहां प्रवेश की अनुमति नहीं दी। सिर्फ 24 भारतीयों को कनाडा सरकार ने वैंकूवर में उतरने ने दिया। शेष भारतीयों को दो महीने बाद जहाज के साथ भारत वापस भेज दिया गया। 1914 में पहला विश्व युद्ध आरंभ हुआ था।


भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (1915-1935)


होमरूल लीग आंदोलन 


प्रथम विश्व युद्ध के समय भारतीय नेताओं ने अंग्रेजों की मदद की, लेकिन जब अंग्रेजों ने स्वशासन (होमरूल) नहीं दिया, तो 1916 में बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट ने होमरूल लीग आंदोलन शुरू किया। तिलक की लीग पुणे में थी और एनी बेसेंट की लीग मद्रास के अडयार में थी। तिलक ने नारा दिया "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा ।" 1916 में लखनऊ अधिवेशन में सभी बड़े नेता एक साथ आए, जिससे आंदोलन और मजबूत हो गया।1917 में अंग्रेजों ने एनी बेसेंट को जेल में डाल दिया, जनता के जवाब के कारण सितंबर 1917 में अंग्रेजों ने भारत को स्वशासन देने का वादा किया। 

महात्मा गांधी का आगमन और गांधीवादी आंदोलन

 1893 में महात्मा गांधी अब्दुल्ला भाई का केस लड़ने दक्षिण अफ्रीका गए, लेकिन वहां रंगभेद नीति के खिलाफ सत्याग्रह किया। उन्होंने टॉलस्टॉय आश्रम और फीनिक्स आश्रम बनाएं और इंडियन ओपिनियन नामक अखबार निकाला। 9 जनवरी 1915 को वे भारत लौटे और 1916 में साबरमती आश्रम की स्थापना की। उन्होंने चंपारण सत्याग्रह (1917), (खेड़ा सत्याग्रह 1917), और अहमदाबाद मिल हड़ताल (1918) में किसानों और मजदूरों की मदद की। प्रथम विश्व युद्ध में उन्होंने भारतीय युवाओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए कहा, जिससे अंग्रेजों ने उन्हें केसरी हिंद पुरस्कार दिया। बाद में, उन्होंने आजादी के लिए कई आंदोलन किए और सत्य अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए भारत को स्वतंत्रता दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई।




रौलट एक्ट 

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भारतीय जनता को उम्मीद थी कि ब्रिटिश सरकार संवैधानिक सुधार करेगी, लेकिन इसके विपरीत, 8 मार्च 1919 को ब्रिटिश सरकार ने सर सिडनी रौलट की अध्यक्षता में सेडिशन समिति द्वारा बनाए गए रौलट एक्ट को लागू कर दिया। इसे काला कानून कहा गया जाता है, क्योंकि इसने सरकार को यह अधिकार दिया कि वह किसी भी भारतीय को बिना मुकदमें के जेल में डाल सकती थी और अपील, वकील, व दलील का कोई अधिकार नहीं था। यह कानून प्रेस की स्वतंत्रता को भी सीमित करता था और ब्रिटिश सरकार को कठोर दमनकारी शक्तियां प्रदान करता था।

 इस अन्यायी कानून के विरोध में महात्मा गांधी ने पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर सत्याग्रह शुरू किया। पूरे देश में इस कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें सबसे बड़ा विरोध पंजाब में देखने को मिला। इस विरोध का चरम जलियांवाला बाग हत्याकांड 13 अप्रैल 1919 के रूप में सामने आया, जब जनरल डायर ने निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवा दी। इस घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक तीव्र कर दिया तथा गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन की नींव पड़ी।


जलियांवाला बाग हत्याकांड 

रौलट एक्ट के विरोध में पूरे देश में हड़तालें, जुलूस, और प्रदर्शन होने लगे। अमृतसर में इस एक्ट के खिलाफ आंदोलन तेज हुआ। विशेष कर जब प्रमुख नेताओं डॉक्टर सैफुद्दीन किचलु और डॉक्टर सत्यपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे जनता में आक्रोश फैल गया। और 13 अप्रैल 1919 बैसाखी के दिन, हजारों निर्दोष लोग जलियांवाला बाग में इक्ट्ठे हुए। इसी दौरान ब्रिटिश जनरल डायर ने वहां पहुंचकर बिना किसी पूर्व चेतावनी के निहत्थी भीड पर गोलियां चलवा दी। इस निर्मम हत्याकांड में सैंकड़ों लोग मारे गए और हजारों घायल हुए। यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई और ब्रिटिश शासन के प्रति जनता के गुस्से को और भड़का दिया।

असहयोग आंदोलन

असहयोग आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था, जिसे महात्मा गांधी ने 27 सितंबर 1920 को शुरू किया था। इसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के साथ सभी प्रकार के सहयोग को समाप्त करना था, जैसे कि ब्रिटिश उत्पादों को न खरीदना, सरकारी नौकरियों में काम न करना, और ब्रिटिश स्कूलों में पढ़ाई न करना। यह आंदोलन जलियांवाला बाग हत्याकांड और रौलट एक्ट जैसे अन्यायों के खिलाफ शुरू किया गया था। देश भर में स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार और विरोध प्रदर्शन हुए। हालांकि 4 फरवरी 1922 को चौरी चौरा घटना में हिंसा फैलने के कारण गांधी जी ने आंदोलन को अचानक रोक दिया। फिर भी इस आंदोलन ने भारत को स्वतंत्रता की ओर एक बड़ा कदम उठाने में मदद की।

सविनय अवज्ञा आंदोलन

1930 में कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की पूरी ज़िम्मेदारी गांधी जी को दी। गांधी जी ने 31 जनवरी 1930 को ब्रिटिश सरकार के सामने 11 मांगे रखी, लेकिन सरकार ने उन्हें नहीं माना। इसके बाद 12 मार्च 1930 को गांधी जी 78 साथियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी के लिए निकले और 6 अप्रैल 1930 को वहां पहुंचकर नमक कानून तोड़ा। बंगाल में लोगों ने टैक्स देने से इन्कार कर दिया। सरकार ने आंदोलन को दबाने की कोशिश की, लेकिन यह और तेज हो गया।मजबूर होकर लॉर्ड इरविन ने गांधी से समझौता किया और 5 मार्च 1931 को आंदोलन खत्म कर दिया गया।

 इसी दौरान 12 नवंबर 1930 को पहला गोलमेज सम्मेलन हुआ, लेकिन कांग्रेस ने इसमें भाग नहीं लिया। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव को फांसी दी गई। 29 मार्च 1931 को कराची में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें वल्लभभाई पटेल अध्यक्ष थे। इसमें पहली बार मौलिक अधिकारों और आर्थिक नीति पर फैसला लिया गया। 7 सितंबर 1931 को दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ है, जिसमें गांधी जी ने कांग्रेस की ओर से भाग लिया। 16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश सरकार ने अलग-अलग समुदायों के लिए अलग चुनाव की घोषणा की, जिसे गांधी जी ने गलत बताया। इसके विरोध में 26 सितंबर 1932 को पूना पैक्ट हुआ। आखिर में नवंबर 1932 में तीसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ।

गांधी इरविन समझौता

गांधी इरविन समझौता महात्मा गांधी और ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच 5 मार्च 1931 को दिल्ली में हुआ था।इस समझौते में ब्रिटिश सरकार ने कुछ रियायतें दी जैसे कि राजनीतिक कैदियों को जेल से रिहा करना (गंभीर अपराधियों को छोड़कर) भारतीयों को नमक बनाने का अधिकार देना, और धार्मिक स्वतंत्रता देना। इसके बदले में गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को समाप्त करने पर सहमति दी। यह समझौता भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि इससे भारतीयों को विश्वास मिला कि वह अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं।


पूना समझौता 1932 ई

पूना समझौता 1932 में महात्मा गांधी और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बीच हुआ। डॉक्टर अंबेडकर ने अछूतों के लिए एक अलग चुनाव की मांग की थी, ताकि उन्हें भी राजनीति में अपना हक मिल सके। लेकिन गांधी जी को डर था कि इसे हिंदू समाज में विभाजन हो सकता है। दोनों नेताओं ने मिलकर एक समझौता किया, जिसमें अछूतों को आरक्षित सीटें दी गई, लेकिन उन्हें अलग चुनाव का अधिकार नहीं दिया गया। यह समझौता भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सामाजिक न्याय और समानता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था।

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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (1935-1947)



1935 का भारत सरकार अधिनियम

भारत सरकार अधिनियम 1935 ब्रिटिश भारत के लिए एक बड़ा कानून था, जिसने देश के प्रशासन में बड़े बदलाव किए। इस अधिनियम ने भारत को केंद्रीय सरकार और प्रांतों में बांट दिया, जहां प्रांतों को अपने मामलों पर कुछ हद तक नियंत्रण मिला। इसमें द्विसदनीय विधायिका बनाई गई,  यानी दो सदनों वाली संसद-  Legislative Assembly (निम्न सदन) और Legislative Council ( उच्च सदन)।

 गवर्नर जनरल के पास खास अधिकार थे, जिससे वे प्रांतों के मामलों मे हस्तक्षेप कर सकते थे, प्रांतों में चुनाव कराए गए, जिससे भारतीय लोकतंत्र को आगे बढ़ावा मिला। साथ ही, रियासती राज्यों को भी कुछ हद तक स्वायत्तता दी गई। भले ही इस अधिनियम ने भारत को पूरी आजादी नहीं दी, लेकिन यह भारतीय संविधान के निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था और स्वतंत्रता संग्राम को को नई दिशा दी।


द्वितीय विश्व युद्ध एवं राष्ट्रीय आंदोलन

(1939 -1945) ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव डाला। युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारत को बिना अनुमति के युद्ध में शामिल कर लिया, जिससे भारतीयों में गुस्सा और विरोध बढ़ा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में शुरू हुआ, जिसमें भारतीयों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया। इस आंदोलन ने स्वतंत्रता की मांग को तेज किया। युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार कमजोर हो गई थी, जिससे भारतीय नेताओं को बातचीत का मौका मिला और अंत में 1947 में भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।




1937 ईस्वी के चुनाव


1937 का भारतीय प्रांतीय चुनाव भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, क्योंकि यह पहली बार था जब भारतीयों को अपने नेताओं को चुनने का मौका मिला। यह चुनाव भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 11 में से 7 प्रांतों में जीत हासिल की, जैसे मुंबई, उत्तर प्रदेश, और बिहार, जबकि मुस्लिम लीग को बंगाल और सिंध में जीत मिली। इस चुनाव ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मतभेदों को उजागर किया, जो बाद में भारत के विभाजन का कारण बने। यह चुनाव भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक अहम कदम था, क्योंकि इससे भारतीयों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने का नया अवसर मिला।






पाकिस्तान की मांग


पाकिस्तान की मांग 28 मार्च 1940 को मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने की थी। उन्होंने कहा कि भारत के मुसलमान के लिए एक अलग देश बनाया जाए, जिसे बाद में पाकिस्तान कहा गया। यह मांग इसलिए उठाई गई, क्योंकि मुसलमानों को डर था कि हिंदू बहुल भारत में उनके अधिकार सुरक्षित नहीं रहेंगे। इस मांग के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत विभाजित हुआ, और पाकिस्तान एक अलग देश बन गया। इस विभाजन के कारण लाखों लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े और हिंसा की घटनाएं हुई।





क्रिप्स प्रस्ताव


क्रिप्स प्रस्ताव 22 मार्च 1942 को ब्रिटिश सरकार द्वारा सर स्टैफोर्ड  क्रिप्स के नेतृत्व में भारत में लाया गया था। इसका उद्देश्य था भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने के लिए मनाना, बदले में उसे युद्ध के बाद स्वतंत्रता का वादा करना और प्रांतों को अधिक आजादी देना, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि कांग्रेस को तात्कालिक स्वतंत्रता चाहिए थी, और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तन की मांग  दोहराई। इस प्रस्ताव के असफल होने के बाद भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को और तेज कर दिया।

अगस्त प्रस्ताव


अगस्त प्रस्ताव की घोषणा 8 अगस्त 1940 ईस्वी को भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो की थी जिसका उद्देश्य भारतीयों को द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने के लिए मानना था इस प्रस्ताव में ब्रिटिश सरकार ने वादा किया था कि युद्ध के बाद भारत को स्वतंत्रता दी जाएगी और भारतीयों को अधिक अधिकार दिए जाएंगे साथ ही वायसराय की परिषद में भारतीयों को भी शामिल किया जाएगा हालांकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया क्योंकि कांग्रेस को तात्कालिक स्वतंत्रता चाहिए थी और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग की इसके बाद 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ


भारत छोड़ो आंदोलन


भारत छोड़ो आंदोलन 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने मुंबई में शुरू किया था। इसका मकसद था ब्रिटिश शासन को खत्म कर भारत को आजादी दिलाना। यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब ब्रिटिश सरकार ने भारत को बिना अनुमति के द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल कर लिया और लोगों पर कठोर नियम लागू किए। गांधी जी ने  करो या मरो का नारा दिया और लोगों को विरोध करने के लिए प्रेरित  किया। पूरे देश में हड़ताले, प्रदर्शन, और धरने हुए। ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को रोकने के लिए कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन यह आंदोलन बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि इसने भारत की आजादी के लिए रास्ता तैयार किया, जो आखिरकार 15 अगस्त 1947 को मिली।


सी आर फार्मूला


10 जुलाई 1944 को रामगोपालाचारी  ने गांधी जी की आज्ञा से  उन्होंने कांग्रेसी और लीग समझौते की एक योजना प्रस्तुत की जिसे सी आर  फार्मूला कहा गया था इस योजना के अंतर्गत पाकिस्तान के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया।



वेवेल योजना

वेवेल योजना 1945 में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड वेवेल ने भारत के राजनीतिक समस्याओं को हल करने के लिए बनाई थी। इसमें कहा गया था कि हिंदू और मुस्लिम को सरकार में बराबर का हिस्सा दिया जाएगा और प्रांतों को ज्यादा आजादी दी जाएगी। साथ ही एक नई संविधान सभा बनाने थी ताकि भारत का भविष्य तय हो सके। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने इसे स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस को लगा कि इसमें उन्हें पूरी सत्ता नहीं दी गई और मुस्लिम लीग को लगा कि मुसलमान के लिए यह योजना सही नहीं है। इस योजना के असफल होने के बाद भारत में आजादी के लिए संघर्ष और तेज हो गया, जो 1947 में भारत की आजादी के साथ खत्म हुआ।

शिमला सम्मेलन


शिमला सम्मेलन 28 और 29 जून 1945 को शिमला में हुआ था, जिसमें ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड वेवेल, कांग्रेस के जवाहरलाल नेहरू, मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना, और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेता शामिल हुए थे। इस बैठक में बात की गई कि भारत को कैसे स्वतंत्र बनाया जाए। सत्ता कैसे भारतीय नेताओं को दी जाए, और प्रांतों को अधिक आजादी कैसे दी जाए। लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सत्ता बांटने और पाकिस्तान बनाने को लेकर झगड़ा हो गया, जिससे यह बैठक सफल नहीं रही। इस असफलता के बाद भारत के विभाजन और आजादी के लिए संघर्ष तेज हो गया।



कैबिनेट मिशन

कैबिनेट मिशन योजना 1946 में ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए बनाई थी। इसमें कहा गया था कि एक नई सरकार बनाई जाएगी, जिसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य दलों के लोग होंगे। साथ ही प्रांतों को अपने मामलों को संभालने की अधिक आजादी दी जाएगी और भारत को एक संघीय देश बनाया जाएगा। कांग्रेस ने इसे स्वीकार किया, लेकिन मुस्लिम लीग ने इसे नहीं मानना क्योंकि वह पाकिस्तान बनवाना चाहती थी। इस वजह से यह योजना सफल नहीं हो पाई और भारत में आजादी के लिए संघर्ष तेज हो गया, जो 15 अगस्त 1947 को पूरा हुआ।




एटली की घोषणा

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट  एटली ने हाउस ऑफ कॉमन में 20 फरवरी 1947 को घोषणा की थी कि ब्रिटिश सरकार 30 जून 1948 तक भारत को पूरी स्वतंत्रता प्रदान करेगी। हालांकि इससे पहले ही 3 जून 1947 को माउंटबेटन योजना के तहत यह फैसला लिया गया कि भारत को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता दी जाएगी। इस घोषणा से भारत के स्वतंत्रता संग्राम को आखिरकार सफलतापूर्वक पूरा करने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया गया।

माउंटबेटन योजना


माउंटबेटन योजना 3 जून 1947 को ब्रिटेन के वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने बनाई थी, जिससे भारत को स्वतंत्रता दिलाने और दो देशों भारत और पाकिस्तान में विभाजित करने का फैसला किया  गया ।इस योजना के अनुसार 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली और धार्मिक आधार पर भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा तय की गई। इससे लाखों लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े और कई जगहों पर हिंसा हुई। भले ही इस योजना ने भारत को आजादी दिलाई है, लेकिन इससे देश में दुख और विभाजन का समय आ गया।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 एक कानून था जो ब्रिटिश सरकार ने बनाया, जिससे भारत को आजादी मिली और इसे दो देश भारत और पाकिस्तान में बांट दिया गया। इस कानून के तहत भारत को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिले और प्रांतों को यह स्वतंत्रता दी गई कि वे चाहे तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकते हैं। भारतीय नेताओं को सरकार चलाने का अधिकार दिया गया और देश के भविष्य के लिए संविधान बनाने की योजना शुरू हुई। भले ही इस कानून ने भारत को आजादी दिलाई, लेकिन विभाजन के कारण लाखों लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े और हिंसा की घटनाएं हुई।

अंतरिम सरकार का गठन


अंतरिम सरकार 15 अगस्त 1947 को भारत की आजादी के बाद बनाई गई थी ताकि देश के कामकाज को संभाला जा सके और संविधान बनाने की तैयारी की जा सके। इस सरकार का नेतृत्व लॉर्ड माउंटबेटन ने किया, जबकि जवाहरलाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री बने और सरदार वल्लभभाई पटेल गृह मंत्री रहे। इस सरकार ने देश के स्वतंत्रता के बाद के समय को सुचारू रूप से चलाने में मदद की और 1950 में भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की नींव रखी।
 

निष्कर्ष:- 

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (1857- 1947) ने देश को ब्रिटिश शासन से आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महात्मा गांधी, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने जन जागरूकता फैलाकर स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत किया। इस आंदोलन ने भारत को लोकतंत्र और समानता के सिद्धांतों से परिचित कराया, जो आज भी हमारे राष्ट्र के विकास के आधारशिला है।



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लेखक परिचय

मैं, अनिल कुमार (अनिल चौधरी) जिसे A .K. Batanwal  के नाम से भी जाना जाता है। A-ONE IAS IPS ACADEMY, सरस्वती नगर (मुस्तफाबाद), जिला यमुनानगर, हरियाणा, पिन कोड 133103 का संस्थापक और प्रबंध निदेशक हूं, साथ ही, मैं इस वेबसाइट

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