सिंधु घाटी सभ्यता(indus valley civilization)
सिंधु सभ्यता की खोज सर्वप्रथम रायबहादुर दयाराम साहनी ने की। सिंधु सभ्यता को प्रागैतिहासिक अथवा कांस्य युग में रखा गया है। सिंधु सभ्यता के मुख्य निवासी द्रविड़ एवं भूमध्यसागरीय थे ।
सिंधु सभ्यता का काल 2500 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व माना जाता है।
सिंधु सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल -सुतकांगेडोर (बलूचिस्तान )
पूर्वी पुरास्थल आलमगीर (मेरठ उत्तर प्रदेश )
उत्तरीपुरास्थल- माॉदा (अखनूर ,जम्मू कश्मीर)
दक्षिणी पुरास्थल दाममाबाद (अहमदनगर ,महाराष्ट्र)
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हड़प्पा संस्कृति के सर्वाधिक स्थल गुजरात में खोजे गए ।सिंधु सभ्यता नगरीय सभ्यता थी। सिंधु सभ्यता से प्राप्त परिपक्व अवस्था वाले स्थलों में केवल 6 को ही बड़े नगरों की संज्ञा दी गई है ये है-
(1) हड़प्पा(2) मोहनजोदड़ो (3)धोलावीरा (4)कालीबंगा(5) राखीगढ़ी (6)गणवीरावाला
लोथल एवं सुरकोटड़ा सिंधु सभ्यता के बंदरगाह थे ।हड़प्पा संस्कृति समूचे सिंध तथा बलूचिस्तान में और लगभग पूरे पंजाब (पूर्वी और पश्चिमी) ,हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,जम्मू, उत्तरी राजस्थान, गुजरात तथा उत्तरी महाराष्ट्र में फैली हुई थी।
सिंधु सभ्यता के दौरान भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग जंगलों से ढके हुए थे। जलवायु नम और आद्र थी। तथा सिंध और राजस्थान आजकल की तरह रेगिस्तानी इलाके नहीं थे ।इस प्रदेश के लोग बाघ, हाथी, और गैंडा से परिचित थे। जंगलों से मिलने वाली लकड़ी का इस्तेमाल भट्ठों में किया जाता था। जिनमें मकान बनाने के लिए इंटे पकाई जाती थी। लकड़ी से नौकाएं भी बनाई जाती थी।
भूमि उपजाऊ थी ।खेतों में हल जोते जाते थे। इसलिए काफी मात्रा में गेहूं और जौ का उत्पादन होता था। खेतों की सिंचाई के लिए नदियों से नहरे निकाली गई होगी। गांव के लोगों को जितने अनाज की आवश्यकता थी ।उससे अधिक अनाज पैदा किया जाता था।
अतिरिक्त अनाज नगर वासियों की जरूरत के लिए शहरों में भेज दिया जाता था। नगरवासी खेती नहीं करते थे। वह मुख्यतः शिल्पकार और व्यापारी होते थे। और विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन तथा विनिमय करके जीविका चलाते थे । वे अपने हाथों से चीजें बनाते थे। जैसे -मनके ,कपड़े और गहने इन चीजों का नगरों में इस्तेमाल होता था। ऐसी चीजें फारस की खाड़ी , मेसोपोटामिया और इराक के सुमेर राज्य को भेजी जाती थी।
नगर -
समय के साथ साथ कुछ छोटे गांव बड़े होते गए ।उनमें रहने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई। नई जरूरतें पैदा हुई ।और नए धंधे शुरू हुए। इन बड़े गांवों के निवासी संपन्न थे। क्योंकि वह अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करते थे। इसलिए वे इस बचे हुए अन्न कपड़ा, मिट्टी के बर्तन या आभूषण जैसी चीजों के बदले में दे सकते थे ।अब इस बात की आवश्यकता नहीं रह गई थी कि प्रत्येक परिवार खेतों में काम करें ।और अपने लिए अनाज पैदा करें। जुलाहे, कुम्हार या बढई अपनी बनाई हुई चीजों को दूसरे परिवारों द्वारा पैदा किए गए अनाज से बदले लेते थे। धीरे-धीरे व्यापार बढ़ता गया। तो कारीगर साथ-साथ रहने लगे। और इस प्रकार गांव नगर बनते गए। आमतौर पर शहरी जीवन को सभ्यता की शुरुआत और संकेत माना जाता है ।सभ्यता मानव संस्कृति के विकास की वह व्यवस्था है जब मनुष्य अपनी भौतिक वस्तुओं की पूर्ति के अलावा भी कुछ और चाहता है। प्रकृति और उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण अधिक प्रभावी हुआ तो लोगों को सोचने के लिए और अपना जीवन स्तर सुधारने के लिए अधिक समय मिला। इस समय लेखन की खोज एक महान उपलब्धि थी। लेखन की खोज से ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाना आसान हो गया और क्योंकि व्यापारियों को अपना हिसाब रखना होता है। शहरों के विकास के साथ-साथ विभिन्न समूह के बीच आर्थिक विभिनता भी बढ़ती गई ।समाजो के शासन के लिए अधिक विस्तृत कानूनों की आवश्यकता पड़ी। साथ ही अब कुछ लोगों को विश्व और मानव दशा के बारे में सोचने का भी अवसर मिला। इससे तरह तरह के धार्मिक विश्वासों का जन्म हुआ ।
मकान
मोहनजोदड़ो का निचला नगर बढ़िया योजना तैयार करके बसाया गया था। सड़के सीधी जाती थी ।और एक दूसरे को समकोण में काटती थी। सड़कें चौड़ी थी। मुख्य सड़क करीब 10 मीटर चौड़ी थी। जो आधुनिक नगरों की बड़ी-बड़ी सड़कों के बराबर है। सड़कों के दोनों और मकान बनाए जाते थे। मकान ईंटों के बने होते थे। और उनकी दीवारें मोटी और मजबूत होती थी। दीवारों पर प्लास्टर और रंग किया जाता था ।छते सपाट होती थी । खिड़कियां कम परंतु दरवाजे अधिक होते थे ।दरवाजे लकड़ी के बने होते थे। रसोई में एक चूल्ला होता था ।और वहीं पर धान्य तथा तेल रखने के लिए मिट्टी के बड़े-बड़े घड़े रहते थे । रसोई के पास ही नाली या मोरी होती थी।
स्नानागार मकान के एक अलग हिस्से में बनाए जाते थे ।और उनकी नालियां सड़क की नालियों से मिली होती थी। सड़क की नाली सड़क के किनारे किनारे चलती थी। और उसके दोनों और ईटे लगी होती थी। ताकि उसे साफ रखा जा सके ।कुछ नालिया पत्थर की पटियों से ढकी रहती थी। मकान में एक आंगन होता था। जिसमें रोटी पकाने के लिए एक चूल्ला होता था। यहीं पर ग्रहणी सिलबट्टे से मसाला पीसने के लिए बैठती थी ।बकरा, बकरी और कुत्ते जैसे घरेलू जानवर भी आंगन में ही रखे जाते थे ।कुछ घरों में कुएं भी होते थे ।
एक वर्ग उन लोगों का था जो शासन करते थे। और लगता है कि दुर्ग के भीतर रहते थे दूसरा वर्ग धनी व्यापारियों और अन्य लोगों का था जो निचले नगर में रहते थे। तीसरा वर्ग गरीब मजदूरों का था नगर वासियों के इन वर्गों के अलावा आसपास के क्षेत्रों में किसान भी थे जो शहरों के लिए अनाज पैदा करते थे ।देहाती इलाकों में रहने और घूमने फिरने वाले पशुचारी लोगों की गतिविधियों के बारे में भी जानकारी मिलती है
भोजन
लोग जौ और गेहूं को चकियो में पीसकर उनके आटे की रोटी पकाते थे । उन्हे फल भी पसंद थे। विशेष रूप से अनार और केले। वे मांस और मछली भी खाते थे
वस्त्र
वे सूत से कपड़ा बुनना जानते थे ।मिट्टी के जो तकुए मिले हैं। उनसे पता चलता है कि बहुत सी स्त्रियां घर पर सूत कात लेती थी। स्त्रियां छोटा घागरा पहनती थी। जो कमरबंद से कसा रहता था। पुरुष कपड़े की लंबी चादर शरीर पर औढ लेते थे। कपड़े सूती होते थे। यद्यपि ऊन का भी इस्तेमाल होता था ।
स्त्रियों को अपने केशों को भांति भांति से गूंथती थी। और कंधों से सजाती थी। स्त्रियां और पुरुष
निष्कर्ष
सिंधु घाटी सभ्यता न केवल भारत की, बल्कि पूरी दुनिया की सबसे प्राचीन और उन्नत सभ्यताओं में से एक थी। इसकी संगठित नगर योजना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, जल प्रबंधन प्रणाली और व्यापारिक गतिविधियां इस बात का प्रमाण है कि प्राचीन भारतीय समाज अत्यधिक विकसित था। हालांकि आज तक हिंदू लिपि को पूरी तरह से पढ़ा नहीं जा सका, फिर भी उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्य हमें इसकी गौरवशाली संस्कृति और जीवन शैली की झलक देते हैं।
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लेखक परिचय
मैं, अनिल कुमार (अनिल चौधरी) जिसे A .K. Batanwal के नाम से भी जाना जाता है। A-ONE IAS IPS ACADEMY, सरस्वती नगर (मुस्तफाबाद), जिला यमुनानगर, हरियाणा, पिन कोड 133103 का संस्थापक और प्रबंध निदेशक हूं, साथ ही, मैं इस वेबसाइट
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